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प्रयागराज महाकुंभ 2025: भव्य, दिव्य और विहंगम् महोत्सव के धार्मिक और सांस्कृतिक रंग

प्रयागराज महाकुंभ 2025: भव्य, दिव्य और विहंगम् महोत्सव के धार्मिक और सांस्कृतिक रंग

यह पूरी व्यवस्था गुरु शिष्य परंपरा पर आधारित है।  जिसका एक सिरा ग्रंथ तो दूसरा देवता विशेष को जाता है। वैसे इसके पीछे दर्शन,परंपरा रीति रिवाज उपासना और शास्त्र प्रमाण मौजूद है। इन अखाड़ों का देश धर्म और संस्कृति के लिए एक गौरवशाली योगदान भी रहा है।

प्रयागराज कुंभ के चर्चे चहुओर है। प्रारंभ होते ही इसने व्यवस्था और आगंतुकों की दृष्टि से नए कीर्तिमान स्थापित किए है। इसे देखते हुए इसे भव्य दिव्य और विहंगम् कहा जा सकता है। वास्तव मे यह ज्ञात मानव इतिहास का सबसे बड़ा आयोजन है। किंतु इस महाआयोजन मे कई विसंगतियां भी सुर्खियां बटोर रही है। धर्म में बाजारवाद की पैठ और अनुचित अनावश्यक विषयों का प्रचार इसी का दुष्परिणाम है।

सनातन में अखाड़ा परंपरा और महाकुंभ 

बात सनातन परंपरा की करें तो सदियों से तेरह अखाड़ों के अंतर्गत ही सभी भारतीय मत पंथ एवं संप्रदाय एकजुट रहे है। ये अखाड़ें धर्म की रक्षा और प्रचार के लिए बनाए गए थे। यही नहीं धर्म व्यवस्थाओं के उचित प्रकार संचालन एवं पालन मे भी इनकी एक महती भूमिका रही है, जिसे ये अपने संप्रदाय के आचार्य एवं अखाड़ें के साधु संत  संग मिल बैठकर तय करते थे, वहीं दूसरे अन्य संप्रदाय एवं अखाड़ों के संग भी इनका समन्वय रहा है। इस नाते इनकी स्थापना एक गहन चर्चा विमर्श और संवादों का परिणाम है।

यह पूरी व्यवस्था गुरु शिष्य परंपरा पर आधारित है, जिसका एक सिरा ग्रंथ तो दूसरा देवता विशेष को जाता है। वैसे इसके पीछे दर्शन,परंपरा रीति-रिवाज, उपासना और शास्त्र प्रमाण मौजूद है। इन अखाड़ों का देश धर्म और संस्कृति के लिए एक गौरवशाली योगदान भी रहा है। ऐसे में किसी नए प्रयोग का क्या मतलब है। किंतु बात यही पर नहीं रुक रही है। स्त्री और पुरुषों के मध्य इस तीसरे लिंग के लोगों को धर्माचार्यो के पदों पर विभूषित करने का चलन चल पड़ा है। अब तो इस कुंभ में इनमें से कइयों को जगतगुरु शंकराचार्य एवं विभिन्न वैष्णव संप्रदायों के सर्वोच्चय आचार्य पद पर बिठाने का कुप्रयास हो रहा है।

बहरहाल, इससे पूर्व ही ये लोग हिंदू धर्म के अधिकृत प्रवक्ता के तौर पर समाज को संबोधित कर रहे हैं। सर्वप्रथम बात इनके पहचान की करें तो जन्म से महज कुछेक लोग ही उभयलिंगी अथवा शारीरिक अक्षमता के शिकार होते हैं। अधिकांश तीसरे लिंगी अपने मनोगत यौन इच्छाओं के नाते इस जीवन को चुनते हैं। ये स्त्रियों से हाव भाव एवं पुरुष से शारीरिक बनावट वाले होते हैं। किंतु इनमें ना तो स्त्रियों सा शील लज्जा और ना ही पुरुषों के जैसा पौरुष एवं पराक्रम होता है। इन कारणों से ही इन्हें षण्ढ़, नपुंसक एवं हिजड़ा शब्द से संबोधित किया जाता रहा है।

यही नहीं जुलूस प्रदर्शनों इत्यादि के माध्यम से इसके लिए वातावरण भी बनाते रहे हैं। ऐसे में एक हिंदू धर्माचार्य के तौर इनकी स्वीकार्यता निश्चित ही इनके जितनी ही अप्राकृतिक होगी, क्योंकि सनातन हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति किसी भी प्रकार के भेदभाव को स्वीकार्य नहीं करती है। यह किसी के उत्पीड़न का भी पक्षधर नही है। किंतु यहां ईश्वरीय विधान प्रकृति के सिद्धांत और संयम का अतिशय महत्व है। अध्यात्म की यात्रा ही व्यभिचार भौंडापन और वैभव के प्रदर्शनों के अंत के साथ होती है। साधु जीवन बिना इन्द्रिय निग्रह और कठोर साधना के संभव नहीं है।

ऐसे में भला क्या ये लोग ब्रह्मचर्य का पालन और साधुता के नियमों कायदों का संपूर्ण जीवन अनुपालन करेंगे? वहीं इस बात की क्या गारंटी की ये आगे यौन स्वेच्छाचार एवं अप्राकृतिक यौनाचार संबंधित गतिविधियों की वकालत ना करें? किंतु इस कुंभ मे विवादों का यह एकलौता मसला नहीं है। महिलाओं के पृथक अखाड़े से लेकर महिला नागा साधु की बात भी कुछ ऐसी ही है।

विचार करें तो महिलाओं की मनोभावना और शारीरिक रचना कई मायनों मे पुरुषों से अलग है। जीवन के एक खास हिस्से में स्त्रियां महीने के कुछ निश्चित दिनों तक रजस्वला होती है। वहीं ये पुरुषों से कही अधिक भावुक स्वभाव की होती है।  किंतु दैहिक बल और शारीरिक तौर पर कही में कम है। इन सब कारणों से इनके लिए एक कठोर जीवन कतई उचित नहीं है। इसके इतर नारी का स्वाभाविक गुणधर्म लज्जा शील और मातृत्व है। ऐसे में भला उनके दिगंबर पूर्णतया नग्न नागा साधु होने के क्या मायने हैं? ये तो घर परिवार और संसार में रहकर भी धर्म और आध्यात्म के मार्ग पर बढ़ सकती हैं। नारी रूपी नारायणी स्वयं की मुक्ति संग समाज को भी दिशा दिखा सकती है।

इन मुद्दों के इतर एक विषय हर कुंभ मेले मे चर्चा का विषय बना रहता है। यह मसला हिंदू धर्माचार्यो के अधिकृत पीठ उस पर नियुक्त आचार्य तथा स्वयंभू पीठों के आचार्य रूप मे विभूषित विराजित संतों का है। दुर्भाग्यवश दुनिया में केवल हिंदू धर्म ही ऐसा है जहां ये मसले विवादित है। इसाई और इस्लाम को छोड़ भारतीय मत पंथ जैन बौद्ध एवं सिख मे भी ऐसा देखने को नही मिलता है। दैत्यों से स्वभाव और विस्तारवादी सोच के बावजूद वैश्विक शक्ति चीन अब तक तिब्बती बौद्ध परंपरा के परमपावन लामाओं की मान्यताओं पर चोट नही कर पाया है।
यहां तक की कई हजार वर्ष की यात्रा उपरांत भी दलाई एवं पंचेम लामा पद पर नए आचार्यो के चयन मे कोई गलती नहीं होती है। जबकि ये परंपरागत् तौर पर धर्माचार्य के साथ ही राजनैतिक प्रमुख भी होते रहे हैं। इसके उलट विश्व के सर्वाधिक पुरातन धर्म हिंदू में यह व्यवस्था राजसत्ता से अलग है। ये अपने तप त्याग,ज्ञान एवं जन कल्याण संबंधित भावनाओं के नाते राजव्यवस्था से जनमानस तक मे पूजे जाते रहे हैं। परंतु यहां अब आचार्यो की नियुक्ति का मनमाना चलन चल रहा है। जबकि आद्य शंकराचार्य से लेकर विभिन्न पूर्ववर्ती महान आचार्यो ने समय अनुसार इस पर अपने मंतव्य लिख रखा है। जिस धर्म में स्नान से लेकर भोजन विधान तक के मंत्र लिखित रूप मे मौजूद हो।  आखिर वहाँ धार्मिक पीठ, धर्माचार्यो के नियुक्ति एवं उपाधि तथा पदवियों के लिए भला कोई व्यवस्था कैसे नही होगी? बात खालसा पंथ के तख्त अर्थात केंद्र,पीठ स्थान एवं यहाँ के व्यवस्थाओं की करे तो कोई किंतु परंतु नही है।
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