स्पेस में कैसे खाते पीते हैं लोग
आठ दिन से आठ महीने खिंच गई सुनीता विलियम्स की अंतरिक्ष यात्रा ने भारत में अंतरिक्ष यात्रियों के खान-पान, रहन-सहन को लेकर उत्सुकता जगा दी है। आने वाला समय लंबी अंतरिक्ष यात्राओं का ही होने वाला है। मंगल ग्रह की कोई भी यात्रा डेढ़ साल से कम की नहीं हो सकती। ऐसे में सुनीता विलियम्स के इस अनियोजित अनुभव के जरिये ही सही, हम इसका अंदाजा ले सकते हैं कि अंतरिक्ष में लोग कैसे रहते हैं, कैसे खाते-पीते हैं, किस तरह की स्वास्थ्य समस्याओं से उनका पाला पड़ता है।
शून्य गुरुत्व की चुनौतियां : माइक्रोग्रैविटी, यानी शून्य के आसपास पहुंचने वाले सूक्ष्म गुरुत्व में न केवल चीजों का व्यवहार बल्कि शरीर का भीतरी कामकाज भी बदल जाता है। यान में चीजें एक जगह रुकी नहीं रहतीं। उन्हें बांधकर या चिपकाकर न रखा जाए तो जरा भी छू जाने पर हवा में तैरने लगती हैं। मेज से या कहीं से भी गिरने पर नीचे नहीं आतीं। इधर-उधर टकराने लगती हैं और जोखिम का सबक बन जाती हैं। खाने-पीने की चीजों में दो तरह के एहतियात रखे जाने जरूरी हैं। जहां तक हो सके, ये हल्की होनी चाहिए। दूसरे, बैक्टीरिया, वायरस या फंगस इनमें नहीं होने चाहिए क्योंकि छोटी सी जगह में कई लोगों के रहने पर बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है।
शरीर का व्यवहार : खानपान से जुड़ी शारीरिक समस्याओं में लार ग्रंथियों, स्वाद ग्रंथियों, आहार नाल- खासकर आंतों और मूत्र प्रणाली का व्यवहार है, जो माइक्रोग्रैविटी में उलट-पुलट हो जाता है। इंसान का पूरा इवॉल्यूशन धरती पर रहकर हुआ है और इसकी दिशा इसी के अनुरूप ढलने की रही है। आंख के आंसू तक भीतर रहें या बाहर, उनकी स्वाभाविक गति ऊपर से नीचे जाने की होती है। इस प्रवाह में दो-चार दिन का व्यवधान शरीर बर्दाश्त कर लेता है।
खुद को बदलते हैं लोग: लेकिन महीनों किसी ऐसी जगह रहने में, जहां ऊपर या नीचे जैसा जहां कुछ है ही नहीं, शरीर का भीतरी व्यवहार बदल जाता है। जीवन की लय इस कदर बिगड़ जाने पर भी इंसान पस्त न पड़े, पूरी शारीरिक-मानसिक क्षमता के साथ अपने लिए निर्धारित शोधकार्य में जुटा रहे, इसके लिए धरती से आपूर्ति के स्तर पर काफी काम करना होता है और वहां रहने वाले लोग भी खुद को बहुत बदलते हैं।
न स्वाद, न गंध : स्पेस स्टेशन में मौजूद अंतरिक्ष यात्री अपना जो हालचाल बताते हैं उनमें वे लगातार जुकाम जैसा लगा होने की बात कहते हैं। असल जुकाम नहीं क्योंकि जुकाम का वायरस स्पेस स्टेशन में न पहुंचे, इसके लिए जान लड़ा दी जाती है। बस, जुकाम में जैसे जीभ का स्वाद गायब हो जाता है,
माइक्रोग्रैविटी का असर: किसी चीज में कोई गंध नहीं आती, आंख, मुंह, कान, नाक हर जगह भीतर से एक सूजन जैसी लगी रहती है, कुछ वैसा ही एहसास माइक्रोग्रैविटी में रहकर होता है। इस समस्या को छोड़ दें तो भूख लगना और वॉशरूम जाने की इच्छा पैदा होना बिल्कुल धरती जैसा ही है। महीनों स्पेस स्टेशन पर गुजार लेने के बावजूद इन बुनियादी बातों पर माइक्रोग्रैविटी का खास असर नहीं होता।
फ्रीज-ड्राइड भोजन : संसार के पहले अंतरिक्ष यात्री, रूस के यूरी गागरिन ने अंतरिक्ष में 1 घंटा 48 मिनट का ही वक्त बिताया था, लेकिन वहां रहते हुए उन्होंने अल्यूमिनियम के तीन ट्यूब्स से खाना खाया था। आगे अंतरिक्ष यात्राओं का समय बढ़ा तो ट्यूब के अलावा वे फ्रीज-ड्राइड खाने के टुकड़े ले गए। किसी चीज को फ्रीज-ड्राई करने का फंडा है- उसे माइनस 40 डिग्री पर ठंडा करना, फिर वैक्यूम चैंबर में गरम करना ताकि उसका सारा पानी निकल जाए। इससे खाना बहुत हल्का हो जाता है, जीवाणु मर जाते हैं, और स्वाद या पोषण पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। बस, खाने से पहले गरम पानी से या भाप से इन्हें हाइड्रेट करना होता है। शुरू में इसके लिए गरम पानी नहीं मिल पाता था लेकिन अभी यह कोई समस्या नहीं है। रही बात पेय पदार्थों की तो वे पाउडर की शक्ल में जाते हैं और पानी मिलाकर पीने लायक बना लिए जाते हैं। पानी या कोई भी पेय पीने के लिए थोड़ा अलग तरह के, वाल्व वाले स्ट्रॉ आजमाने होते हैं।
स्पेस फूड की प्रयोगशालाएं : इंसानी अंतरिक्ष यात्रा की महत्वाकांक्षा वाले हर मुल्क में उस तरफ के खान-पान से जुड़ी प्रयोगशालाएं बनी हुई हैं, जहां इस पर काम चलता रहता है कि कैसे कोई नया स्वादिष्ट और पोषक भोजन या पेय अंतरिक्षयात्रियों के मेन्यू में जोड़ दिया जाए। भारत में भी गगनयान से जुड़ी तैयारियों का यह एक जरूरी पहलू है।
लोअर बॉडी की एक्सरसाइज : कुछ बातें अंतरिक्ष में व्यायाम और उत्सर्जन से जुड़ी तकनीकों पर भी होनी चाहिए। हड्डियां कमजोर हो जाने, यहां तक कि स्पेस स्टेशन पर अपने जरूरी कामों में भी अक्षम हो जाने का खतरा वहां बराबर बना रहता है। लिहाजा अपर और खासकर लोअर बॉडी की एक्सरसाइज का एक नियमित कार्यक्रम हर अंतरिक्ष यात्री को अपने दैनिक अनुशासन में शामिल करना होता है। उत्सर्जन की तकनीकें धीरे-धीरे करके परफेक्शन तक पहुंची हैं लेकिन स्टेशन में गंदगी फैल जाने की छोटी-मोटी दुर्घटनाएं अब भी कभी-कभार हो जाती हैं।
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